आज मैने देखा मां को
आज मैने मां को देख है जिसने मुझे वह सब कुछ दिया जो मरे आत्मा को झकझोर कर रख देते है मै उन लम्हो की अभिव्यक्ति नही कर सकता क्यो कि मुझ जैसे तुच्छ मानव में शायद मां की व्याख्या की योग्यता ही नही है, और नही वे शब्द जिनसे मैं मां के उस रूप की व्याख्या करू जो आज एक झड़ मुझे जीवन के सारे आनन्द दे दिये ।
यह कहानी है देश की राजधानी दिल्ली के नजदीक हरियाणा के फरीदावाद शहर की जहां मुझे मां मिली। शहर का वह कस्बा जिसे सेक्ट.16 के नाम से जाना जाता है। वही ज्वाहर लाला नेहरू स्नात्कोत्तर महा विद्वालय है। महा विद्यालय के ठीक सामने एक अहुजा परिवार है जो एक टीन के साये में दुकान चलाता है वह केवल अपनी दूकान पर चाय ही बनाया करता जिसका संचालन एक महिला करती है। मै उसका नाम तो नही जानता पर उसकी उम्र देखने से करीब 55 साल से उपर ही प्रतीत होती है। उस महिला में मैने आज मां को देख है।
हम रोज की भांति उसके दुकान पर चाय पीने जाया करते थे जहां वह अपने व्यवहार से हमें प्रभावित कर देती थी पर 19 जनवरी कों करीब 6 बज रहे थे । यह समय उम महिला को स्मरण रहे ना रहे पर हमारे चेतान को उस वह क्षण ने इतना प्रभावित किया किया कि लगा बर्षो बाद हमारे दर्द पर किसी ने मरम लगाया हो।
हम दोनों भाई उस महिला से चाय लेकर पी लिये उसके बदले में उस महिला को हम लोगों ने पैसे देने शुरू किये पर वह महिला उतने ही क्षणों में हमारे अभिव्यक्ति को समझ चूकी थी और उसने पैसे लेने से इन्कार कर दिया। पैसे न दे जा कुछ इसका खा लेना, लेकिन हम लोग नही माने मेरा भाई 20 रूपये निकाला देने के लिए पर उसके शब्द सुनकर वह उसे रखने लगा पर मैने अपने भाई से वे पैसे लेकर उस महिला को देने लगा तो उस महिला ने जानते हो क्या कहा अरे मै तेरी मां हू जो लेजा कुछ खा लेना मेरा हक नही बनता तुझ पर ये शब्द मेरे कानों गुज रहे है। उस मां की ममता ने मुझे उसके सम्मान में दो शब्द लिखने के लिए मजबूर कर रहे थे कि क्या होगा रब जाने पर उसकी ये शब्द एक मां के शब्द है उन्हे जरूर फैलाओं। मैने उस घटना का जिक्र किया लेकिन मुझे लगता है कि उस समय की घटना को मै पूर्ण रूप से शब्दों में नही उतार सकता क्योकि उस समय अनुभूति पराकाष्ठा पर थी।
लेखक
अजय कुमार त्रिपाठी
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