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गन्ना, गरीबी और गण्डक इस बार भी नही बनें मुद्दे


अजय कुमार त्रिपाठी / हरिगोविंद चौबे 
टाइम्स ऑफ़ कुशीनगर ब्यूरो 
कुशीनगर। लोकसभा चुनाव को लेकर सभी दलों ने चुनाव जीतने के लिए सारे पैतरे लगाने शुरू कर दिये पर अफसोश गन्ना, गण्डक और गरीबी इस बार भी चुनावी मुद्दा नही बन सके। 

कही कोई जाति का मुद्दा बना कर चुनाव में मतदाताओं को लुभा रहा है। तो कही कोई कि घर्म और देश की दुहाई दे रहा है। कई तो ऐसे है लाखो रूपये दावत देकर खर्च कर दिये। लेकिन किसी ने नही कहां कि हम कुशीनगर लोक सभा में संचालित चीनी मिलों हर हाल में चलवाते रहेगे। किसी ने गण्डक की समस्या से स्थाई समाधान करने की बात नही की। जिससे लाखों घर बाढ़ की समस्या से प्रत्येक साल जुझते रहते। आज भी कुशीनगर में गरीबों की संख्या लाखों में यह घटने का नाम ही नही ले रही है। 190142 लाख परिवार गरीब है। जिन्हे बीपीएल श्रेणी में रखा गया है। यही नही 170136 परिवार ऐसे है जिन्हें सरकार भुखमरी से बचने के लिए अन्त्योदय योजना के तहत राशन देती है।  

प्रत्येक साल ये परिवार बाढ़, और आग की लपटों से वहते और झुलसते रहे। इनकी हालत ऐसी है कि जोड़ा का मौसम आते ही इन्हे ठण्ड से बचने के लिए सरकार की तरफ से अलाव व कम्बल के वितरण का इन्तजार करना शुरू कर देना पड़ता है। फिर गर्मी का मौसम आते ही पछुआ हवाओं के झोको ंऔर इनकी फश की छोपडि़यां आग की चिंगारियों का इन्तजार करना शुरू देती है। कभी कभी ऐसा भी देखने को मिलता है कि ये लोग अपने घरों को पानी से भीगों कर ही कही दूर किसी काम से जाते है। गर्मी भर इन्हे की आग की लपटै सताती रहती है और ये अजने जनप्रतिनिधियों को कोसते हुए उन्हे झेलते रहते।

कुछ इसी तरह बरसात के चार महिने भी इन्हे गुजारना होता है। पानी का बरसना अगर शुरू हुआ तो बाढ़ का खतरा इन्हे रात भर सोने नही देता। विभाग भी किसी तरह से खाना पूर्ति कर अपना ये चार किसी तरह से निकाल लेता है। ऐसे कर करते-करते 12 माह बीत जाते है। आशुओं की घूंट पीकर ये लोग फिर ये सोचते है कि पांच साल बीतने दों हम अब किसी ऐसे नेता को चुनेंगें की हमारी सारी परेसानिया दूर हो जायेंगी। बीतते समय के साथ वह दिन आ जाता है।सभी पार्टीयां अपना घोषणा पत्र ऐसा बनाती है। कि गन्ना, गण्डक और गरीबी करीब-करीब तीनों सम्माप्त हो जाती है। फिर ये लोग किसी को जाति के नाम पर, किसी को घर्म के नाम पर बोट देकर विधान सभा और लोक सभा में अपना प्रतिनिधित्व करने करने के लिए भेज देते है। 

सबसे बड़ी ताजुब की बात तो यह है कि ये हमारे जनप्रतिनिधि भी ऐसे मिल जाते है। जो पाॅच साल की सरकार में बहुत कम बार ही अपने क्षेत्र की समस्या उठा पाते है और फिर पांच साल की सरकार के बाद चुनाव आ जाता है। 1952 से 2014 तक यह घरती 15 सांसदों के कार्य काल को देख चूकी है कौन कितना अच्छा है सब जानती है। किसने किसके लिए क्या किया इसे इसे बताना नही है।

फिर भी इन लोगों के साथ इनके हमदर्द चुनावों की प्रतिक्षा करते रहते है कि इस बुछ नया करेगें। जिससें हमेशा के लिए ये समस्याऐं समाप्त हो। पर अफशोस कि पूर्वाचल के अंतिम छोर पर बिहार की सीमा से सटा यह जिला आजादी के 67 साल के बाद भी अपने पिछड़ेपन से उबरने के लिए तरस रहा है। चिरगोड़ा निवासी 70 बर्षीय सत्यनरायण चौबे  कहते है कि मुझे आज इन नेताओं पर विश्वास ही नही होता कि ये कुछ कर पायेगे। ये तों सब अपने लिए ही चुनाव लड़ते है और अपना ही बनाते है अगर ऐसा नही होता तो इनकी इतनी बड़ी तादात नही होती। अब तो इन्हे देख बोट देने का मन नही करता क्योंकि आजादी के लिए जिन्होने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया उन्होने ऐसे भारत की कल्पना नही कि थी। आज गांधी होते तों देश की दशा देख निश्चित ही रो पड़ते।

इन समस्याओं को फिर चुनावी मुद्दा नही बनाया गया। लोग तो अब यह मान चूके है कि फिर आने वाले पांच साल यहां कि स्थिति में विशेष कोई बदलाव होने की सम्भावना नही है। कभी चीनी का कटोरा कहां जाने वाला यह इलाका आज स्वयं चीनी के लिए तरस रहा है। उसके अपने पैसे बन्द पड़ी चीनी मिलों से नही मिल पाये।

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