अपराध के सामने बेवश हो गया है आज का समाज
मिथिलेश कुमार गुप्ता

यह सच है कि एक अपराध के बाद अपराध का सिलसिला शुरु हो जाता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि अन्धे को राजसिंहासन देना भी अपराध है। जुआ का खेल खेलना भी अपराध है। परिणाम में भी अपराध ही हुआ। द्रौपदी का चिर हरण ही नही जंघे पर बैठाने का अपराध किया गया। बात भले ही पुरानी हो परन्तु हमारे संविधान में इसका नजीर है। उस समय का अपराध वर्तमान में धारा 354 है। जिसका दण्ड दुर्योधन को सिर्फ मृत्यु से ही नही चुकाना पड़ा बल्कि जिस अंग से अपराध हुआ था उसको तोड़ कर मृत्यु दण्ड दिया गया। इसका मतलब है कि कोई भी पुरुष किसी स्त्री पर दृष्टिपात नही कर सके।
संस्कृत की यह उक्ति “मातृवत पर दारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत” अर्थात् परायी स्त्री माता तुल्य है और पराया धन मिट्टी के ढेले के समान है। ऐसी ही तमाम उक्तियों को हमारे समाज को शुद्व करने के लिए लाया गया परन्तु कुछ लोंगों द्वारा इसके अर्थ का अनर्थ कर दिया गया जो 367,368,354 और 376 का विरोध किये उन्हे जटायु की तरह तड़पा-तड़पा कर मार दिया गया। परन्तु वहां भी दण्ड का विधान कम नही हुआ। अपरहण, छेड़-छाड़ की सजा सपरिवार मृत्यु दण्ड मिली।
कब तक हमारा जमीर सुप्ता अवस्था में रहेगा। नारी तो मानव समाज में वरदान है कभी अपने स्तनों से रक्त को दुध बनाकर पिलाती है कभी कलाई में रक्षासूत्र बंाधती है तो कभी अपना सर्वस्व न्योछावर कर पुरुष समाज को संतुष्ट करती है। फिर उसके साथ दरिंदगी क्यों? अबला मानकर उसके अपराधी को कबतक सहूलियत दिया जाता रहेगा। आज आवश्यक हो गया है कि दण्ड विधान को सर्वोपरि रखा जाय। जो त्वरित हो और किसी का हस्तक्षेप न हो। लोकतन्त्र की गरिमा भी इसी में निहित है। बढते अपराध व घटता दण्ड की स्थिति में न्याय हो गया है लकवाग्रस्त। समाज की दशा विक्षिप्त हो जायेगी । देश का जल खारा व अन्न तीखे व स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जायेंगें। विज्ञान भी हमसे मंुह मोड़ लेगा। अभी तो लेखनी लिख रही है कल यह भी कुंद हो जायेगी।
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