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कुशीनगर में एक ऐसा गांव जहां से जेठ के पहले सोमवार को नही देखता कोई सूर्योदय




  • एक विशेष पुजा का होता है आयोजन
  • घर को छोड़ बहु और बच्चे भी निकल जाते है आज के दिन

कुशीनगर । उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में एक ऐसा गावं है जहां एक दिन ऐसा आता है कि वहां के लोग अपने गांव में सूर्योदय नही देखते यही नही गांव में सूर्यास्त तक एक बच्चा भी नहीं रहता। सूर्योदय के पूर्व ही  सभी लोग गांव की सरहद छोड़ देते है और दुसरे गांव में चले जाते है। यहां तक कि पशुओं को भी गांव से बाहर कर दिया जाता।

इन दिन ग्रामीण पराह  नाम की एक विशेष पुजा करते है। ऐसी मान्यता है कि इस पूजा से आपदा कटती है और खुशहाली आती है। हर तीसरे साल जेठ महीने के शुक्ल पक्ष में पहले शुक्रवार या पहले सोमवार को यह विशेष पुजा की जाती है। यह इतनी प्राचीन है कि इसकी गाथा गांव के बुजुर्ग भी ठीक-ठीक नही बता पाते।

इस परंपरा की शुरूआत कब और कैसे हुई?यह अब कोई नही जानता पर आस्था ही है जो गांव में रहने वाले सभी वर्गों के लोगों को इस परंपरा का पालन करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में गांव में आई नई बहुएं, प्रसूता महिलाएं व बच्चे सभी सूर्योदय से सूर्यास्त तक गांव में नहीं रहते हैं। इस दौरान गांव के सीवान के बाहर का ही पानी पीया जाता है। पशुओं को भी गांव के बाहर कर दिया जाता है।

गांव के बाहर का बागीचें में पूरे दिन गुलजार रहता है। यहां लोग सूर्यास्त होने तक रहते है और शाम को काली मंदिर में विशेष पूजा करते है। इसके बाद पूरे गांव की परिक्रमा कर पताका फहराया जाता है। इसे लोग पराह पूजा के नाम से जानते है।

कुशीनगर जिले के खड्डा ब्लाक अन्र्तगत धरनीपट्टी ग्राम सभा के मुंडेरा के मुंडेरा गांव में हर तीन साल बाद परंपरागत रूप मनायी जाने वाली यह विशेष पुजा आज यानी सोमवार को ही आयोजित थी। जेठ महिने का यह पहला सोमवार था।

गांव के 89 वर्षीय बुजुर्ग रामरेखा बताते हैं कि उनके दादा इस बारे में जिक्र किया करते थे। सैकड़ों वर्षों पूर्व गांव में थारू जनजाति की यहां बस्ती हुया करती थी। थारुओं के स्वप्न में मां काली ने आपदा से बचने के लिए गांव के बाहर पराह करने को कहा था। तभी से यह परंपरा चली आ रही है। पराह के दिन कोई गांव में पानी भी पीएगा नही तो अंधा हो जाएगा। गांव में चंदा लगाकर एक भेड़ खरीदी जाती है।

काली मंदिर ले जाकर उसके गले में प्रसाद बांध दिया जाता है। कुछ देर भ्रमण कराने के बाद उसके गले का प्रसाद गांववालों में बांट दिया जाता है। इसके बाद एक दर्जन ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। इससे कोई अनिष्ट नहीं होता है। हालाकिं गांव में आई नयी बहू हो या प्रसूता सभी को सूर्योदय से सूर्यास्त तक गांव छोड़ने की परंपरा निभानी पड़ती है। 115 वर्षीय लाखी देवी कहती हैं कि जब वे शादी के बाद गांव में आईं तो पराह पूजा शामिल हुयी थी। वह बताती है कि इस दिन घरों में ताले नहीं लगते, मगर चोरियां भी नहीं होतीं। लोगों में प्रेम, विश्वास व आस्था की भावना लगातार विकसित होती जा रही है। 

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