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भारत की सत्ता ग्लोबल सत्ता की पिछलग्गू



कुशीनगर ।  भारत की सत्ता ग्लोबल सत्ता की पिछलग्गू हो गई है और जो लोक कलाओं की विरोधी है। लोक कलाएं सामूहिकता का परिणाम है और इनमें पतन को सामूहिकता के द्वारा ही रोका जा सकता है। लोक कलाओं में फूहड़ता का प्रवेश मानवीय संवेदनाओं के लुत्फ होने के चलते हो रहा है।

उक्त बातें रीवा विवि मध्यप्रदेश हिन्दी विभागाध्यक्ष डा. दिनेश कुशवाहा ने कुशीनगर के जोगियां में लोकरंग 2013 के दौरान लोक कलाओं का समय व स्वरूप विषयक वैचारिक संगोष्ठी में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि वेद पहले लोक है। लोक ने वेद अर्थात शास्त्र का निर्माण किया। 

वही डा. योगेंद्र चैबे ने कहा कि लोक कला प्रदर्शन की वस्तु नहीं है। वर्तमान पीढ़ी लोक कलाओं व संस्कृतियों से अनभिज्ञ है। इसी क्रम में राजस्थान के चरन सिंह पथिक ने कहा कि जब तक लोक है लोक कलाएं मौजूद रहेंगी। व्यवसायीकरण से लोक कलाओं व संस्कृतियों का पतन का पतन हो रहा है। 

इसे रोकने के स्वरूप पर विचार करना आवश्यक है। अनिल पदम बेगूसराय ने कहा कि लोक कलाओं में समय के साथ परिवर्तन हो रहा है। इसे सकारात्मक रूप में इससे जड़े लोगों को लेना चाहिए। अध्यक्षीय संबोधन में प्रख्यात कथाकार मदन मोहन ने कहा कि लोक संस्कृति व कलाओं के लिए वर्तमान समय नकारात्मकता का चल रहा है। जिससे लोक कलाओं के साथ-साथ सकारात्मक साहित्यिक संस्कृति व सकारात्मक राजनीति विलुप्त हो रही है। 

इस अवसर पर महाराष्ट्र में सरकार द्वारा कबीर कला मंच के कार्यकर्ताओं शीतल साहे व सचिन माली पर हो रहे उत्पीड़न के विरोध का सर्वसम्मत प्रस्ताव पत्र मनोज सिंह की पहल पर पारित किया गया और कहा गया कि लोक रंग सांस्कृतिक समिति देश के किसी भी भाग में सरकार प्रायोजित उत्पीड़न व अत्याचार का विरोध करती है।

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