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गांव और जीवन से है लोक कलाओं का सम्बन्ध- पंकज विष्ट

टाईम्स आफ कुशीनगर व्यूरो
फाजिलनगर, कुशीनगर  । लोक कलाओं का सम्बन्ध गांव और जीवन से है। लोक कलाएं जीवन के हर हिस्से से अभिव्यक्त होती हैं। उत्पादन के सम्बन्ध से कलाओं का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जैसे-जैसे उत्पादन के साधन बदल रहे हैं, लोक कलाओं में भी बदलाव आ रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था में लोक संस्कृति और लोक कलाओं को बचाना बहुत मुश्किल होता है। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक नीतियों को बदले बिना हम लोक संस्कृति और लोक कलाओं के संरक्षण और विकास का काम नहीं कर पाएंगे।
यह बातें जोगिया जनूबी पट्टी में आयोजित लोकरंग समारोह के दूसरे दिन ‘ लोक संस्कृति का वर्तमान और भविष्य ’ पर आयोजित विचार गोष्ठी में मुख्य अतिथि प्रसिद्ध कथाकार एवं समयान्तर के सम्पादक पंकज बिष्ट ने कही। उन्होंने लोकरंग के उद्घाटन के समय कहे अपने शब्दों को दुहराते हुए कहा कि आज हम कई तरह के संकटों के दौर से गुजर रहे हैं। यह समय लोक कलाओं के पतन का है। लोक कलाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह कृत्रिम रूप से गढ़ी नहीं जाती हैं बल्कि हमारी जीवन शैली से प्रेरणा पाकर हमारे जीवन और जीवन संघर्ष को अभिव्यक्त करती हैं। लोक कलाओं और लोक संस्कृति को बचाने का तात्पर्य है अपने जीवन और जीवन शैली को बचाना है।
गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे पटना से आए लोेक संस्कृति के मर्मज्ञ तैयब हुसैन ने कहा कि लोक संस्कृति में हमें उस हर तत्व को लेना चाहिए जिसका आधार ऐतिहासिक हो और वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न हो। लोक संस्कृति में जो भी प्रगतिशील हो उसे ढूंढकर सामने लाने की जरूरत है। उन्होंने लोक संस्कृति में मिथकों के खतरे के प्रति आगाह किया। जनवादी लेखक संघ के प्रदेश सचिव नलिन रंजन सिंह लोक साहित्य के संकलन का काम न होने पर चिंता जताते हुए कहा कि बहुत नाउम्मीद होने की जरूरत नहीं है। लोक नृत्य, लोकगीत, लोक गाथा में नवोन्मेष भी दिखाई दे रहा है भले ही कम क्यों न हो। उन्होंने लोक साहित्य में स्त्री और दलित विमर्श को रेखांकित करते हुए कहा कि नए विमर्शो में नए पड़ताल के साथ लोक संस्कृति को जोड़ेंगे तो भविष्य उम्मीद भरी होगी।
झारखंड से झारखंडी भाषा साहित्य, संस्कृति अखड़ा की वंदना टेटे ने झारखंड के पांच बड़े आदिवासी समूहों में से एक खडि़या आदिवासी समूह की संस्कृति का विस्तृत परिचय देते हुए कहा कि हमारे समाज में रंग औरा लिंग भेद नहीं है और यह जीवन दर्शन हमने सृष्टि के सानिध्य में पाया है। जंगल और जमीन हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है और इसको खत्म करना हमारी संस्कृति को खत्म करना है। रींवा विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो दिनेश कुशवाहा ने कहा कि लोक संस्कृति का विकास सत्ता की संस्कृति के प्रतिरोध मे हुआ। लोक ने अपने किस्से-कहानियों, गीतों, नृत्यों के साथ-साथ लोक विश्वासों और लोक आस्थाओं में भी लोक संस्कृति प्रकट हुई। लोक अनुभव जन्य ज्ञान को शास्त्र और वेद से आगे माना गया है। इसके बावजूद लोक संस्कृति में सब कुछ अच्छा नहीं है। नब्बे फीसद लोक विश्वास झूठ पर आधारित हैं क्योंकि ये अनुभव जन्य लोक ज्ञान से अलग से आए हैं। इन लोक विश्वासों, आस्थाओं की पुनर्वाख्या करनी होगी और उनको वैज्ञानिक स्वरूप देना होगा। वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन ने कहा कि लोक़ संस्कृति के वर्तमान में दुख-दर्द, पीडा, संघर्ष  का बयां तो है लेकिन मुक्ति का संकेत नहीं दिखायी देता। लोक संस्कृति की बात करते हुए कुछ लोग इसे जैसा है वैसा बने रहने की बात कर रहे जो बहुत घातक है। उन्होंने माक्र्सवादी विचारधारा से आंख नहीं चुराने की नसीहत देते हुए कहा कि लोक संस्कृति का निर्माण द्वंदात्मक है।
वरिष्ठ पत्रकार दयानन्द पांडये ने कहा लोक संस्कृति मंचों और समारोहों से नहीं बचेगी। इसे हमें अपने घरों में जगह देनी होगी। उन्होंने लोक भाषाओं के खत्म होने पर चिंता जताते हुए कहा कि लोकभाषा को विद्वान नहीं बनाते, बाजार और रोजगार बनाते हैं। लोकभाषा का सम्बन्ध रोजी-रोटी से जोड़ना होगा। उन्होंने बाजार और भूमण्डलीकरण का अंध विरोध करने के बजाय इसको साथ में लेने की जरूरत पर जोर दिया।
कहानीकार ऋषिकेश सुलभ ने कहा कि जो हमारे काम का नहींे है उसे हम शव की तरह लादे नहीं रह सकते। हमारे समय का आख्यान बदल रहा है लेकिन जीवन का मौलिक भाव कभी नहीं बदलता। आज भी ऐसे गीत लिखे जा रहे हैं जो सत्ता, शोषण के प्रतिरोध में खड़े हैं।
सुप्रसिद्ध चित्रकार डाॅ लाल रत्नाकर कहा कि उन्नत कला का लयात्मक स्वरूप लोक से आया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश लोक कलाओं के लिए बहुत ही समृद्ध है। हमें लोक कलाओं के संरक्षण और विकास के लिए बहुत काम करने की जरूरत है। वरिष्ठ पत्रकार अशोक चैधरी ने कहा कि लोक जन में घनघोर निराशा है। लाखों की संख्या में किसान आत्महत्या रहे हैं फिर भी हुक्मरान कह रहे हैं कि देश विकास कर रहा है। हमारी चिंता इस बात की है कि जिसके बल पर हम लोक संस्कृति के विकास की बात कर रहे हैं वहीं संकट में है। आदिवर्त संग्रहालय खजुराहो के कार्यक्रम अधिकारी डा महेश चन्द्र शांडिल्य ने लोक संस्कृति के क्षरण के लिए मध्यवर्ग के उदासीनता को जिम्मेदार ठहराया। डा विजय चैरसिया ने बैगा आदिवासियों की संस्कृति की विस्तार से चर्चा की । पत्रकार मनोज सिंह ने कहा कि लोक संस्कृति को बचाने और उसके विकास की लड़ाई किसान, खेती, प्राकृतिक संसाधनों की कार्पोरेट लूट से बचाने की लड़ाई से अलग नहीं है। कार्पोेरेट विकास में गांव, किसान, खेत, जल जंगल जमीन नहीं बचेंगे तो हम लोक संस्कृति को कैसे बचा पाएंगे। उन्होंने लोक संस्कृति के संरक्षण के कार्य में रूमानियत से बचने की सलाह देते हुए कहा कि लोककलाओं में बहुत से फार्म को बचाने की चिंता गैर जरूरी है क्योंकि ये स्त्रियों के शोषण से जुड़े हुए हैं। विचार गोष्ठी का विषय प्रवर्तन राम प्रकाश कुशवाहा ने किया। संचालन बलरामपुर से आए साहित्यकार पीसी गिरि ने किया। विचार गोष्ठी के प्रारम्भ में इप्टा पटना की टीम ने दो गीत प्रस्तुत किए।

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